भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या

भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर निबंध | Bharat me jansankhya vridhi ki samasya par nibandh
 

सम्बद्ध शीर्षक:

• जनसंख्या विस्फोट और निदान

• जनसंख्या वृद्धि कारण और निवारण

• बढ़ती जनसंख्या एक गम्भीर समस्या

• परिवार नियोजन 

• बढ़ती जनसंख्या बनी आर्थिक विकास की समस्या

• जनसंख्या नियन्त्रण

• बढ़ती जनसंख्या रोजगार की समस्या


प्रमुख विचार-बिन्दु 1. प्रस्तावना 2. जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ, 3. जनसंख्या वृद्धि के कारण, 4. जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के उपाय, 5. उपसंहार 


प्रस्तावना- जनसंख्या वृद्धि की समस्या भारत के सामने विकराल रूप धारण करती जा रही है। सन् 1930-31 ई० में अविभाजित भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी, जो अब केवल भारत में 135 करोड़ से ऊपर पहुँच चुकी है। जनसंख्या की इस अनियन्त्रित वृद्धि के साथ दो समस्याएँ मुख्य रूप से जुड़ी हुई हैं. सीमित भूमि तथा 2. सीमित आर्थिक संसाधन अनेक अन्य समस्याएँ भी इसी समस्या से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई जैसे- समस्त नागरिकों की शिक्षा, स्वच्छता, चिकित्सा एवं अच्छा वातावरण उपलब्ध कराने की समस्या इन समस्याओं का निदान न होने के कारण भारत क्रमशः एक अजायबघर बनता जा रहा है, जहाँ चारों ओर व्याप्त अभावग्रस्त, अस्वच्छ एवं अशिष्ट परिवेश से किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विरक्ति हो उठती है और मातृभूमि की यह दशा लज्जा का विषय बन जाती है।


जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ- विनोबा जी ने कहा था, "जो बच्चा एक मुँह लेकर पैदा होता है, वह दो हाथ लेकर आता है।" आशय यह है कि दो हाथों से पुरुषार्थ करके व्यक्ति अपना एक मुँह तो भर सकता है। पर यह बात देश के औद्योगिक विकास से जुड़ी है। यदि देश की अर्थव्यवस्था बहुत सुनियोजित हो तो वहाँ रोजगार के अवसरों की कमी नहीं रहती। लघु उद्योगों से करोड़ों लोगों का पेट भरता था अब बड़ी मशीनों और उनसे अधिक शक्तिशाली कम्प्यूटरों के कारण लाखों लोग बेरोजगार हो गये और अधिकाधिक होते जा रहे हैं। आजीविका की समस्या के अतिरिक्त जनसंख्या वृद्धि के साथ एक ऐसी समस्या भी जुड़ी हुई है, जिसका समाधान किसी के पास नहीं वह है सीमित भूमि की समस्या भारत का क्षेत्रफल विश्व का कुल 2.4 प्रतिशत ही है, जबकि यहाँ की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की लगभग 17 प्रतिशत है: अतः कृषि के लिए भूमि का अभाव हो गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत की सुख-समृद्धि में योगदान करने वाले अमूल्य जंगलों को काटकर लोग उससे प्राप्त भूमि पर खेती करते जा रहे हैं, जिससे अमूल्य वन सम्पदा का विनाश, दुर्लभ वनस्पतियों का अभाव, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या, वर्षा पर कुप्रभाव एवं अमूल्य जंगली जानवरों के वंशलोप का भय उत्पन्न हो गया है। उधर हस्त शिल्प और कुटीर उद्योगों के चौपट हो जाने से लोग आजीविका की खोज में ग्रामों से भागकर शहरों में बसते जा रहे हैं, जिससे कुपोषण, अपराध, आवास आदि को विकट समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।


जनसंख्या वृद्धि का सबसे बड़ा अभिशाप है- किसी देश के विकास को अवरुद्ध कर देना, क्योंकि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्यान और रोजगार जुटाने में ही देश की सारी शक्ति लग जाती है, जिससे अन्य किसी दिशा में सोचने का अवकाश नहीं रहता। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्राचीन भारत में आश्रम व्यवस्था द्वारा


मनुष्य के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को नियन्त्रित कर व्यवस्थित किया गया था। 100 वर्ष की सम्भावित आयु का केवल चौथाई भाग (25) वर्ष) ही गृहस्थाश्रम के लिए था। व्यक्ति का शेष जीवन शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा समाज सेवा में ही बीतता था। गृहस्थ जीवन में भी सयंम पर बल दिया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत का जीवन मुख्यत: आध्यात्मिक और सामाजिक था, जिसमें व्यक्तिगत सुख भोग की गुंजाइश कम थी। आध्यात्मिक वातावरण की चतुर्दिक् व्याप्ति के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति ब्रह्मचर्य, संयम और सादे जीवन की ओर थी। फिर उस समय विशाल भू-भाग में जंगल फैले हुए थे, नगर कम थे। अधिकांश लोग ग्रामों या ऋषियों के आश्रमों में रहते थे, जहाँ प्रकृति के निकट सम्पर्क से उनमें सात्विक भावों का संचार होता था आज परिस्थिति उल्टी है। आश्रम व्यवस्था के नष्ट हो जाने के कारण लोग युवावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त गृहस्थ ही बने रहते हैं, जिससे सन्तानोत्पत्ति में निरन्तर वृद्धि हुई है।


ग्रामों में कृषि योग्य भूमि सीमित है। सरकार द्वारा भारी उद्योगों को बढ़ावा दिये जाने से हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग चौपट हो गये हैं, जिससे गाँवों का आर्थिक ढाँचा लड़खड़ा गया है। इस प्रकार सरकार द्वारा गाँवों की लगातार उपेक्षा के कारण वहाँ विकास के अवसर अनुपलब्ध होते जा रहे हैं, जिससे ग्रामीण युवक नगरों की ओर भाग रहे हैं, जिससे ग्राम प्रधान भारत का शहरीकरण का कारक बनता जा रहा है। उधर शहरों में स्वस्थ मनोरंजन के साधन स्वरूप होने से अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग को प्रायः सिनेमा या दूरदर्शन पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जो कृत्रिम पाश्चात्य जीवन पद्धति का प्रचार कर वासनाओं को उभारता है। इसके अतिरिक्त बाल विवाह, गर्म जलवायु, रूढ़िवादिता, चिकित्सा सुविधाओं के कारण मृत्यु दर में कमी आदि भी जनसंख्या वृद्धि की समस्या को विस्फोटक बनाने में सहायक हुए हैं। 


जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के उपाय जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का सबसे स्वाभाविक और कारगर उपाय तो संयम या ब्रह्मचर्य ही है। इससे नर नारी समाज और देश सभी का कल्याण है, किन्तु वर्तमान भौतिकवादी युग में जहाँ अर्थ और काम ही जीवन का लक्ष्य बन गये हैं, वहाँ ब्रह्मचर्य पालन अवकाश सुमन हो गया है फिर सिनेमा, पत्र-पत्रिकाएँ, दूरदर्शन आदि प्रचार के माध्यम भी वासना को उद्दीप्त करके पैसा कमाने में लगे हैं। उधर अशिक्षा और बेरोजगारी इसे हवा दे रही है। फलत: सबसे पहले आवश्यकता यह है कि भारत अपने प्राचीन स्वरूप को पहचानकर अपनी प्राचीन संस्कृति को उज्जीवित करे। प्राचीन भारतीय संस्कृति, जो अध्यात्म-प्रधान है, के उज्जीवन से लोगों में संयम की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति बढ़ेगी, जिससे नैतिकता को बल मिलेगा और समाज में विकराल रूप धारण करती आपराधिक प्रवृत्तियों पर स्वाभाविक अंकुश लगेगा; क्योंकि कितनी ही वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याएँ व्यक्ति के चरित्रोन्नयन से हल हो सकती हैं। भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए अंग्रेजी की शिक्षा को बहुत सीमित करके संस्कृति और भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन पर विशेष बल देना होगा।


इसके अतिरिक्त पश्चिमी देशों की होड़ में सम्मिलित होने का मोह त्यागकर अपने देशी उद्योग-धन्धों, हस्तशिल्प आदि को पुनः जीवनदान देना होगा भारी उद्योग उन्हीं देशों के लिए उपयोगी हैं, जिनकी जनसंख्या बहुत कम है; अतः कम हाथों से अधिक उत्पादन के लिए भारी उद्योगों की स्थापना की जाती है। भारत जैसे विपुल जनसंख्या वाले देश में लघु कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन की आवश्यकता है, जिससे अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिल सके और हाथ के कारीगरों को अपनी प्रतिभा के प्रकटीकरण एवं विकास का अवसर मिल सके।


जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए लड़के-लड़कियों की विवाह-योग्य आयु बढ़ाना भी उपयोगी रहेगा। साथ ही समाज में पुत्र और पुत्री के सामाजिक भेदभाव को कम करना होगा। पुत्र-प्राप्ति के लिए सन्तानोत्पत्ति का क्रम बनाये रखने की अपेक्षा छोटे परिवार को ही सुखी जीवन का आधार बनाया जाना चाहिए तथा सरकार की ओर से सन्तति निरोध का कड़ाई से पालन कराया जाना चाहिए।


इसके अतिरिक्त प्रचार माध्यमों पर प्रभावी नियन्त्रण के द्वारा सात्विक,शिक्षाप्रद एवं नैतिकता के पोषक मनोरंजन उपलब्ध कराये जाने चाहिए। ग्रामों में सस्ते स्वस्थ मनोरंजन के रूप में लोक-गीतों, लोक नाट्यों (नौटंकी,रास, रामलीला, स्वांग आदि), कुश्ती, खो-खों आदि की पुरानी परम्परा को नये स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता है। साथ ही जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से भी ग्रामीण और अशिक्षित जनता को भली-भांति अवगत कराया जाना चाहिए।


जहाँ तक परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों के अवलम्बन का प्रश्न है, उनका भी सीमित उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान युग में जनसंख्या की अति त्वरित वृद्धि पर तत्काल प्रभावी नियन्त्रण के लिए गर्भ निरोधक औषधियों एवं उपकरणों का प्रयोग आवश्यक हो गया है। परिवार नियोजन में देशी जड़ी-बूटियों के उपयोग पर भी अनुसन्धान चल रहा है। सरकार ने अस्पतालों और चिकित्सालयों में नसबन्दी की व्यवस्था की है तथा परिवार नियोजन से सम्बद्ध कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए केन्द्र एवं राज्य स्तर पर अनेक प्रशिक्षण संस्थान भी खोले हैं।


उपसंहार :- जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का वास्तविक स्थायी उपाय तो सरल और सात्विक जीवन-पद्धति अपनाने में ही निहित है, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को ग्रामों के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिससे ग्रामीणों का आजीविका की खोज में शहरों की ओर पलायन रुक सके। वस्तुतः ग्रामों के सहज प्राकृतिक वातावरण में संयम जितना सरल है, उतना शहरों के घुटन भरे आडम्बरयुक्त जीवन में नहीं। शहरों में भी प्रचार माध्यमों द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रचार एवं स्वदेशी भाषाओं की शिक्षा पर ध्यान देने के साथ-साथ ही परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों- विशेषत: आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के प्रयोग पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। समान नागरिक आचार-संहिता प्राथमिक आवश्यकता है, जिसे विरोध के बावजूद अविलम्ब लागू किया जाना चाहिए। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जनसंख्या वृद्धि की दर घटाना आज के युग की सर्वाधिक जोरदार माँग है, जिसकी उपेक्षा आत्मघाती होगी।

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