मेरा प्रिय ग्रन्थ (श्रीरामचरितमानस) पर निबंध|Mera Priya Granth Par Nibandh

मेरा प्रिय ग्रन्थ (श्रीरामचरितमानस) पर निबंध

सम्बद्ध शीर्षक:

मेरी प्रिय पुस्तक
हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय, अमर साहित्यिक कृति

प्रमुख विचार-बिन्दु 1. प्रस्तावना पुस्तकों का महत्त्व, 2. श्रीरामचरितमानस की महत्ता 3. कथा संगठन, 4. चरित्र-चित्रण, 5. भक्ति भावना, 6. भाव-व्यंजना, 7. भाषा-शैली, 8. आदर्श की स्थापना,9. भारत पर तुलसी का ऋण, 10. उपसंहार ।


प्रस्तावना - पुस्तकों का महत्व- किसी विद्वान ने लिखा है कि व्यक्ति को अपने यौवन में ही किसी लेखक या पुस्तक को अपना प्रिय अवश्य बना लेना चाहिए, जिससे वह उससे आजीवन सोत्साह जीने का सम्बल प्राप्त कर सके। पुस्तकों से अच्छा साथी दूसरा नहीं। वे व्यक्ति को सहारा देती हैं, उससे सहारा नहीं माँगतीं। हर समय व्यक्ति के पास उपस्थित रहती हैं, किन्तु अपनी उपस्थिति से उसका ध्यान नहीं बँटाती। एक सन्मित्र की भाँति सदा परामर्श को तत्पर रहती हैं, फिर भी अपनी राय उस पर नहीं थोपतीं।

पुस्तकों की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर मैंने उनमें विशेष रुचि ली और ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिसके फलस्वरूप मैने अनुभव किया। कि गोस्वामी तुलसीदास कृत 'श्रीरामचरितमानस' एक सर्वांगपूर्ण रचना है, जो हर दृष्टि से असाधारण है एवं महत्तम मानवीय मूल्यों तथा आदर्शों से स्पन्दित है।


श्रीरामचरितमानस की महत्ता :- वाल्मीकि रामायण के काल से लेकर आज तक समस्त रामकाव्यों की यदि तुलसीकृत 'श्रीरामचरितमानस' से तुलना की जाए, तो यह स्पष्टतः दीख पड़ेगा कि आदिकाव्य से उद्भूत रामकाव्य-परम्परा 'मानस' में आकर पूर्ण परिणति को प्राप्त हुई है। चाहे वस्तु संघटन कौशल की दृष्टि से देखें, चाहे पात्रों के चरित्र-चित्रण के चरमोत्कर्ष की दृष्टि से और चाहे महाकाव्य एवं नाटकीयता के अद्भुत सामंजस्य द्वारा प्राप्त शैली की विमुग्धाकारिणी प्रौढ़ता की दृष्टि से, यह निष्कर्ष तर्कसंगत और साधार प्रतीत होगा, न कि मात्र भावुकताप्रेरित । फलत: क्या आश्चर्य, यदि 'मानस' संसार के विश्व की विभिन्न भाषाओं में इतने अनुवाद उपलब्ध नहीं होते, जितने 'श्रीरामचरितमानस' के। एक ओर यदि अमेरिकी पादरी ऐटकिन्स ने अपनी आयु के श्रेष्ठ आठ वर्ष लगाकर 'मानस' का अंग्रेजी में पद्यानुवाद किया (जबकि इससे पूर्व उस भाषा में इसके कई अनुवाद विद्यमान थे), तो दूसरी ओर अनीश्वरवादी रूस के मूर्धन्य विद्वान प्रोफेसर वरान्नीवकोव ने अपने अमूल्य जीवन का एक बड़ा भाग लगाकर तथा द्वितीय विश्व युद्ध की भीषण परिस्थिति में कजाकिस्तान में शरणार्थी के रूप में रहकर भी रूसी भाषा में इसका पद्यानुवाद किया। उपर्युक्त मनीषियों के अतिरिक्त गास द तासी (फ्रेंच), ग्राउज, ग्रियर्सन, ग्रीव्ज, कारपेण्टर, हिल (आंग्लभाषी विद्वान्) आदि न जाने कितने काव्यमर्मज्ञ तुलसी की प्रतिभा पर मुग्ध हैं।


कथा-संगठन- यदि मानस पर कथावस्तु की दृष्टि से विचार करें हम पाएँगे कि इसमें गोस्वामी जी ने पुराने प्रसंगों को नया रूप देकर कई को अधिक उपयुक्त स्थल पर रखकर कुछ को संक्षिप्त और कुछ को विस्तृत कर तथा कुछ नये प्रसंगों की उद्भावना कर कथावस्तु को सर्वथा मौलिक बना दिया है। उनके बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड का अधिकांश तो मौलिक है ही, पर अयोध्याकाण्ड में तो उनकी कुशलता देखते ही बनती है। इसके पूर्वार्द्ध के संघर्षमय वातावरण की उन्होंने जिस कलानिपुणता से सृष्टि की है, उस पर उनकी मौलिकता की छाप है और उत्तरार्द्ध का भारत चित्र तो उनकी सर्वथा अनूठी रचना है। भरत के माध्यम से उन्होंने अपनी भक्ति भावना को साकार रूप प्रदान किया है। आरम्भ से अन्त तक 'मानस' की कथावस्तु में काण्ड असाधारण प्रवाह हैं।


चरित्र-चित्रण- श्रीरामचरितमानस में प्रस्तुत चरित्र-चित्रण अपनी मौलिकता में वाल्मीकीय 'रामायण' और 'अध्यात्म' कैसे बहुत पीछे छोड़ जाता है। सामान्यतः इसके सभी चरित्र नये साँचे में ढलकर नयी गरिमा से मण्डित हुए हैं, पर राम ने नरत्व के साथ परब्रह्म का सामंजस्य स्थापित किया गया है। राम में शक्ति, शील तथा सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखाकर राम के शील का जैसा दिव्य-चित्रण किया गया है, वह सर्वथा अभूतपूर्व और अतुलनीय है।


भक्ति भावना :- श्रीरामचरितमानस' में गोस्वामी तुलसी जी की भक्ति सेवक सेव्य भाव की होते हुए भी परम्परागत भक्ति से भिन्न है गोस्वामी जी की भक्ति साधन नहीं, स्वयं साध्य है और ज्ञानादि उसके चाकरमात्र हैं। इस ग्रन्थ में गोस्वामी जी ने भरत के रूप में अपनी भक्ति का आदर्श खड़ा किया है और भरत अपनी तन्मयता में राधाभाव के समीप पहुँच जाते हैं, अतः उनके विषय में यह नि:संकोच कहा जाता है कि "माधुर्य भाव की उपासना में जो स्थान राधा का है, दास्य भाव की उपासना में वही स्थान भरत का है।" इस प्रकार तुलसी की भक्ति का स्वरूप सर्वथा मौलिक बन पड़ा है जिसमें छुटपन- बड़प्पन या ऊँच-नीच जैसा कोई भेदभाव नहीं। इस भक्तिरूपी रसायन द्वारा श्रीरामचरितमानस के माध्यम से गोस्वामी जी ने मृतप्रायः हिन्दू जाति को जनवजीन प्रदान किया।


भाव व्यंजना- गोस्वामी जी प्रसिद्ध कवीश्वर थे, भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट थे। उन्होंने 'मानस' में शास्त्रोक्त नव रसों को तो साकार किया ही, अपनी अलौकिक प्रतिभा से भक्ति-रस नामक एक नूतन रस की भी सृष्टि कर डाली। गोस्वामी जी ने रसपरिपाक के अतिरिक्त संचारी भावों एवं अनुभावों की अलग से भी ऐसी कुशल योजना की है कि उनकी काव्य-प्रतिभा पर दंग रह जाना पड़ता है। 'श्रीरामचरितमानस' से संचारियों एवं अनुभावों का लिखित, योजनाबद्ध समग्र चित्र खड़ा करने का कौशल द्रष्टव्य है

उठे रामु सुनि मेप अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥

भरत के आगमन पर प्रेमजन्य अधीरता एवं हर्षजन्य आवेग के कारण राम जो अति वेगपूर्वक उठते हैं, उससे जहाँ एक ओर उनका भरत के प्रति अनुराग साकार हो उठा है, वहीं उनकी मानव सुलभ अधीरता भी चित्रित हो जाती है।

* श्रीरामचरितमानस' में उपमाओं की सादगी एवं मार्मिकता पर सारा सहृदय समाज मुग्ध है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा सम्पूर्ण लंका में एकमात्र विभीषण ही सन्त-स्वभाव के थे। शेष सारा समाज दुर्जन और परपीड़क था। ऐसों के बीच में रहकर जीने के लिए विवश विभीषण अपनी दशा का वर्णन करते हुए हनुमान् जी से कहते हैं

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्ह महँ जीभ बिचारी ॥

अर्थात् हे पवनपुत्र! लंका में मैं वैसा ही विवश जीवन जी रहा हूँ, जैसा बत्तीस दाँतों के बीच में रहकर जीने को विवश बेचारी जीभ न दाँतों का संग छोड़ सकती है, न उनसे निश्चिन्त हो सकती है। इसी प्रकार काव्य के समस्त अंगों-उपांगों कर 'श्रीरामचरितमानस' में चित्रण इसे एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है।


भाषा शैली :- मानस में महाकवि तुलसी ने संस्कृत की महत्ता एवं एकछत्र साम्राज्य के उस युग में अनगढ़ लोकभाषा को अपनाकर उसे बड़े मनोयोग से सजाया-सँवारा इस ग्रन्थ में इन्होंने अपनी असामान्य प्रतिभा के बल पर रस को रसात्मकता, अलंकार को अलंकरण तथा छन्द को नयी गति भागमा और संगीतात्मकता प्रदान की तथा हमारे आस-पास के सुपरिचित जीवन से उपमानों का चयनकर उनमें नयी अर्थवत्ता और व्यंजकता भर दी। काव्य में नाटकीयता के मणिकांचन योग द्वारा नयी शैली को जन्म दिया, जिसने एक ही ग्रन्थ को श्रव्य काव्य और दृश्य-काव्य दोनों बना दिया।


आदर्श की स्थापना :- 'मानस' की रामकथा एक आदर्श मानव की, एक आदर्श परिवार एवं पूर्ण जीवन की कथा है। तुलसी ने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक प्रत्येक क्षेत्र में जिन आदशों की स्थापना की, वे व्यक्ति के इहलौकिक पारलौकिक दोनों ही जीवनों को सँवारने वाले हैं। इसी कारण 'मानस' पारिवारिक जीवन का महत्त्व कहलाता है, क्योंकि परिवार ही व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है और पारिवारिक जीवन की सुदृढ़ता समस्त क्षेत्रों को भी सुदृढ़ बनाती है। आदर्श राज्य के रूप में तुलसी के रामराज्य की कल्पना आरम्भ से भारतीय जन मानस को प्रेरणा देती रही है। और देती रहेगी।

भारत पर तुलसी का ऋण इस सम्बन्ध में डॉ० सुनीति चटर्जी लिखते हैं कि भक्ति के साथ-साथ समाज की रक्षा के लिए उनका अपरिसीम आग्रह था और इसी भक्ति और समाज की चेष्टा के फलस्वरूप 'श्रीरामचरितमानस' नामक महाग्रन्थ रचित हुआ, जिनकी पूतधारा ने आज उत्तर भारत की हिन्दू जनता के चित्त को सरस और शक्तिमान बनाये रखा है। और उसके चरित्र को सामाजिक सद्गुणों के आदर्श की ज्योति से सदा आलोकित कर रखा है।"


उपसंहार- अस्तु,मौलिकता की श्रेष्ठतम सम्बल पाकर ही तुलसी का 'श्रीरामचरितमानस लोक-मानस बन सकता है, यह तुलसी की कवि-प्रतिभा और उनकी जागरूक कलाकारिता का प्रमाण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-"तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, समाज सुधारक थे लोकनायक थे और भविष्य की स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि से जो अब तक उत्तर भारत का मार्गदर्शक रहा है और उस दिन भी रहेगा, जिस दिन नवीन भारत का गया होगा।"


तुलसी कृत 'श्रीरामचरितमानस' का मूल्यांकन करते हुए डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं कि, "श्रीरामचरितमानस विक्रम की दूसरी सहस्त्राब्दी का सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है।" भारतीय वाड्मय के समुद्र से अनेक विचार-मेघ उठे और बरसे। उनके अमृत तुल्य जल की जिस मात्रा में जनता को आवश्कता थी, उसे समेटकर मानों गोसाई जी ने श्रीरामचरितमानस' में भर दिया है जो अन्यत्र था साररूप ये यहाँ आ गया है। तुलसी का 'श्रीरामचरितमानस' विक्रम को दूसरी सहस्त्राब्दी के साहित्यकार खुला नेत्र है, उसे ही तत्कालीन लोक की दर्शनक्षमता या आंख कह सकते हैं।

Post a Comment

Previous Post Next Post