राष्ट्रीय एकता पर निबंध हिंदी में | Rastriya Ekta Par Nibandh

राष्ट्रीय एकता पर निबंध हिंदी में | Rastriya Ekta Par Nibandh

सम्बद्ध शीर्षक:

• राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएँ
• राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
• राष्ट्र एकता के पोषक तत्व
• वर्तमान परिवेश में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप
• राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा

प्रमुख विचार-बिन्दु- 1. प्रस्तावनाः राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय, 2. भारत में अनेकता के विविध रूप, 3. राष्ट्रीय एकता का आधार 4. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता, 5. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ (क) साम्प्रदायिकता, (ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता, (ग) भाषावाद (घ) जातिवाद, (ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति, 6. राष्ट्रीय एकता बनाये रखने का उपाय (क) सर्वधर्म समभाव (ख) समष्टि हित की भावना, (ग) एकता का विश्वास, (घ) शिक्षा का प्रसार (ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त,(7) उपसंहार।

प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय- एकता एक भावात्मक शब्द है जिसका अर्थ है- 'एक होने का भाव'। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है- देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। भारत में इन दृष्टिकोणों से अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होते हैं और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं-


जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं नरपशु निरा है, और मृतक समान है।


भारत में अनेकता के विविध रूप :- भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं, जैसे-हिन्दू धर्म के अन्तर्गत वैष्णव, शैव, शाक्त आदि। वैष्णवों में भी रामपूजक और कृष्णपूजक हैं। इसी प्रकार अन्य धर्मों में भी अनेकानेक अवान्तर भेद हैं। सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता 'अनेकता' की द्योतक है। 

राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार- भिन्नता का संकेत करते हैं। साहित्यिक दृष्टि से भारत की प्राचीन और नवीन भाषाओं में रचित साहित्य की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विविधता की सूचक हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इतनी विविधताओं के होते भारत अत्यन्त प्राचीन काल से एकता के 'सूत्र में बँधा हुआ है। हुए भी राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं सार्वभौमिक सत्ता बनाये रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परमावश्यक है। यही वह भावना है, जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिन्तन करते हैं।


राष्ट्रीय एकता का आधार :- हमारे देश की एकता के आधार दर्शन और साहित्य हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाई-चारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।


राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता :- राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना। वह तो सम्पूर्ण मनुष्य जाति जो एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे हैं। नानक का कथन है-

अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे ।


एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मन्दे ।। यदि हम भारतवासी अपने में निहित अनेक विभिन्नताओं के कारण छिन्न-भिन्न हो गये तो हमारी फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। ऐसा ही विचार राष्ट्रीय एकता इसकी कीमत चुकानी पड़ी।" अतः देश की स्वतन्त्रता की रक्षा की और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।


राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएं :- मध्यकाल में विदेशी शासकों का शासन हो जाने पर भारत की इस अन्तर्निहित एकता को आघात पहुँचा था किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में अनेक समाज सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सप्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई थी, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उनके तत्थ इस आन्तरिक एकता को खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-


(क) साम्प्रदायिकता - साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी गयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं, जैसे- प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है। जहाँ भी विरोध और घृणा है, वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता। जाति-पाँति के नाम पर लड़ने वालों पर इकबाल कहते हैं-मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।


(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता- अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है और हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगे सुनाई पड़ती हैं। एक ओर कुछ तत्वं खालिस्तान की माँग करते हैं तो कुछ तेलुगूदेशम् और ब्रज प्रदेश के नाम पर मिथिला राज्य चाहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधा बन गयी है।


(ग) भाषावाद - भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलतः विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्ततः राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक संघ के रूप में गठित किया गया और प्रशासनिक सुविधा के लिए चौदह प्रान्तों में विभाजित किया गया, किन्तु धीरे-धीरे भाषावाद के आधार पर प्रान्तों की माँग बलवती होती चली गयी, जिससे भारत के प्रान्तों का भाषा के आधार पर पुनगर्ठन किया गया। तदुपरान्त कुछ समय तो शान्ति रही, लेकिन शीघ्र ही अन्य अनेक विभाषी बोली बोलने वाले व्यक्तियों ने अपनी-अपनी विभाषा या बोली के आधार पर अनेक आन्दोलन किये, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना को धक्का पहुँचा।


(घ) जातिवाद मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कटरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया था। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था ने जन्म पर आधारित कट्टर आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया था। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था ने जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया और हर जाति अपने को दूसरी से ऊँची मानने लगी। इस तरह जातिवाद ने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हरिजनों के लिए आरक्षण की राजकीय नीति का आर्थिक दृष्टि से दुर्बल सवर्ण जातियों ने कड़ा विरोध किया। विगत वर्षों में इस विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाकर देश की राष्ट्रीय आज एक बड़ी बाधा बन गया है।एकता को झकझोर दिया। इस प्रकार जातिवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में 


(ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति- जाति, धर्म और सम्प्रदायों के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है, तब राष्ट्रीयता की भावना मन्द पड़ जाती है। लोग सम्पूर्ण राष्ट्र का हित न देखकर केवल अपने जाति, धर्म, सम्प्रदाय अथवा वर्ग के स्वार्थ को देखने लगते हैं। 


राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय- वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए अग्रलिखित उपाय प्रस्तुत हैं-


(क) सर्वधर्म समभाव - विभिन्न धर्मों, में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों की बातों से की जाए तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देंगी, अतः हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊंचा या नीचा समझना नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एक पाप है। धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के लिए गहरे विवेक की आवश्यकता है। सागर के समान उदार वृत्ति रखने वाले इनसे प्रभावित नहीं होते।


(ख) समष्टि हित की भावना यदि हम अपनी स्वार्थ भावना को त्यागकर समष्टि हित का भाव विकसित कर लें तो धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे 'राष्ट्र' के नाम पर सोचेंगे और इस प्रकार अलगाववादी भावना के स्थान पर राष्ट्रीय भावना का विकास होगा, जिससे अनेकता रहते हुए भी एकता की भावना सुदृढ़ होगी।


(ग) एकता का विश्वास भारत में जो दृश्यमान अनेकता है, उसके अन्दर एकता का भी निवास है इस बात का प्रचार ढंग से किया जाए, जिससे कि सभी नागरिकों को अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सके।


(घ) शिक्षा का प्रसार- छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हो। विद्यार्थियों को मातृभाषा तथा राष्ट्रभाषा के साथ एक अन्य प्रादेशिक भाषा का भी अध्ययन करना चाहिए। इससे भाषायी स्तर पर ऐक्य स्थापित होने से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी।


(ङ) राजनीतिक छल-छदमों का अन्त- विदेशी शासनकाल में अंग्रेजों ने भेदभाव फैलाया था, किन्तु अब स्वार्थी राजनेता ऐसे छलछद्म फैलाते हैं कि भारत में एकता के स्थान पर विभेद ही अधिक पनपता है। ये राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं। और सम्प्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक छलछद्मों का अन्त और राजनीतिक वातावरण के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी।


उपर्युक्त उपायों से भारत की अन्तर्निहित एकता का सभी को ज्ञान हो सकेगा और सभी उसको खण्डित करने के प्रयासों को विफल करने में अपना योगदान कर सकेंगे। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए तथा मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर सबल राष्ट्र के घटक स्वयं भी अधिक पुष्ट होंगे।


उपसंहार- राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।

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