एक महापुरुष की जीवनी (राष्ट्रपति महात्मा गाँधी ) | Ek Mahapurush Ki Jivani Par Nibandh
सम्बद्ध शीर्षक:
• मेरा प्रिय राजनेता
• मेरा आदर्श पुरुष
• वर्तमान युग में गाँधीवाद की प्रासंगिकता
• हमारे आदर्श महापुरुष
प्रमुख विचार-बिन्दु- 1. प्रस्तावना, 2. जीवनवृत्त, 3. गाँधी जी के सिद्धान्त-अहिंसा (व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा, राजनीति में अहिंसा) (ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त, 4. राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक, 5. कुटीर उद्योग पर बल, 6. प्रेरणादायक गुण, 7. उपसंहार ।
प्रस्तावना :- मानव जीवन एक रहस्य है। इसके रहस्य अनेक बार मनुष्य को उस मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहाँ वह किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में होता है। उसे कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी स्थिति में महाजनो येन गताः के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। जीवन की ऐसी उलझनों में सुलझने के लिए महापुरुष ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, उसका नाम है मोहनदास करमचन्द गाँधी । यही मेरे आदर्श पुरुष हैं। इनके बाह्य व आन्तरिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त जी लिखते हैं
तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन !
यद्यपि बाह्य रूप से देखने में गाँधी जी अस्थियों का ढाँचामात्र ही लगते थे, किन्तु उनमें आत्मिक बल अमित था । वस्तुतः राजनीति जैसे स्थूल और भौतिकवादी क्षेत्र में उन्होंने आत्मा की आवाज पर बल दिया, नैतिकता का प्रतिपादन किया तथा साध्य के साथ साधन की शुद्धता को भी आवश्यक ठहराया विश्व राजनीति को यह उनका विशिष्ट योगदान था, जिससे प्रेरणा लेकर कई पराधीन देशों में स्वातन्त्र्य- आन्दोलन चलाये गये और स्वतन्त्रता प्राप्त की गयी।
जीवनवृत्त :- मोहनदास करमचन्द गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को पोरबन्दर (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री करमचन्द गाँधी तथा माँ का नाम श्रीमती पुतलीबाई था। करमचन्द गाँधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे। सात वर्ष की अवस्था में मोहनदास करमचन्द गाँधी एक गुजराती पाठशाला में पढ़ने गये। बाद में अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत तथा धार्मिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इण्ट्रेन्स की परीक्षा पास करने के उपरान्त ये विलायत चले गये।
भारत लौटने पर गाँधी जी ने पहले राजकोट और फिर बम्बई में वकालत शुरू की। उन्हें सेठ अब्दुल्ला फर्म के एक हिस्सेदार के मुकदमे को लेकर दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ पग-पग पर उन्होंने रंगभेद नीति को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। प्रिटोरिया में भारतीयों की पहली सभा में गाँधी जी ने भाषण दिया और यहीं से इनके सार्वजनिक जीवन का आरम्भ हुआ। सन् 1896 ई० में गाँधी जी भारत आये और सपरिवार पुनः अफ्रीका लौट गये। लौटने पर उन्हें गोरों का विशेष विरोध सहना पड़ा, परन्तु गाँधी जी ने साहस न छोड़ा और कई आन्दोलनों का संचालन करते रहे। सेवा में उनका अडिग विश्वास था । बोअर युद्ध (सन् 1899 ई०) तथा जूलू-विद्रोह (सन् 1906 ई० में स्वयं सेना स्थापित करके उन्होंने पीड़ितों की पर्याप्त सेवा की।
सन् 1914 ई० में वे भारत लौट आये। यहाँ आकर उन्होंने चम्पारन में किसानों पर किये जाने वाले अत्याचारों तथा कारखानों के कर्मचारियों पर मालिकों द्वारा की गयी ज्यादतियों का खुलकर विरोध किया और भारत के सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया। सन् 1924 ई० में वे बेलगाँव में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये सन् 1930 ई० में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा और और इस आन्दोलन के समस्त अधिकार गाँधी जी को सौंप दिये 4 मार्च सन् 1931 ई० को गाँधी-इरविन समझौता हुआ। दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेन्स में कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी इंग्लैण्ड गये और अंग्रेज सरकार से स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता न मिली तो कांग्रेस का आन्दोलन भी जारी रहेगा।
15 अगस्त सन् 1947 ई० को भारत को स्वतन्त्रता मिली। देश में उत्पन्न अन्य समस्याओं को सुलझाने में गाँधी जी लगे ही थे कि सहसा 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को वे नाथूराम गोड्से द्वारा शहीदों की परम्परा में चले गये।
गाँधी जी के सिद्धान्त (अ) अहिंसा :- गाँधी जी का सबसे प्रमुख सिद्धान्त था व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में अहिंसा का प्रयोग अहिंसा आत्मा का बल है वे अहिंसा का मूल प्रेम में मानते थे वे लिखते हैं, "पूर्ण अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव है, इसलिए वह मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों यहाँ तक कि विषैले कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी अलिंगन करती है।" उन्होंने बार-बार कहा है कि अहिंसा-धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।
(i) व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा अहिंसा का अर्थ है-प्रेम,दया और क्षमा। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी गाँधी जी ने इस सिद्धान्त को चरितार्थ करके दिखाया। वे जीव मात्र से प्रेम करते थे। दीनों और दलितों के लिए तो उनके प्रेम और करुणा की कोई सीमा ही न थी। वे इसे मानवता के प्रति घोर अपराध मानते थे कि किसी को नीचा या अस्पृश्य समझा जाये क्योंकि भगवान की दृष्टि में सारे प्राणी समान हैं। इसीलिए उन्होंने अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया, जिसे उन्होंने हरिजनोंद्धार कहा। हिन्दू-समाज के प्रति यह उनकी बहुत बड़ी सेवा थी। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिला।
उनकी दया भावना ने उन्हें प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। परचुरे शास्त्री भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। गाँधी जी ने उन्हें अपने साथ रखा। इतना ही नहीं, उनके घावों को भी वे स्वयं अपने हाथों से साफ करते थे। इससे उनकी परदुःख कातरता एवं सेवा भावना का पता चलता है। अपने साथियों का भी गाँधी जी बहुत ध्यान रखते थे। एक अवसर पर एक सज्जन आकर गाँधी जी को कुछ फल दे गये, जिनमें चीकू भी थे। गाँधी जी ने कुछ चीकू अपने एक साथी को देते हुए कहा, "इन्हें महादेव को दे आओ, उसे चीकू बहुत पसन्द है।"
अपने शत्रु को क्षमा करने की घटनाएँ तो उनके जीवन में भरी पड़ी। उन्होंने अपने आश्रम में साँप बिच्छू आदि को भी मारना वर्जित कर दिया था। उन्हें पकड़कर दूर छोड दिया जाता था। एक बार एक साँप गाँधी जी के कन्धे पर चढ़ गया। उनके साथियों ने उनकी ओढ़ी हुई चादर समेत उ खींचकर दूर लेजाकर छोड़ दिया। इस प्रकार गाँधी जी ने अपने जीवन में भी अहिंसा को चरितार्थ करके दिखाया।
(ii) राजनीति में अहिंसा- राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहार उन्होंने तीन शास्त्रों के रूप में किया- सत्याग्रह, असहयोग और बलिदान सत्यग्रह का अर्थ है-सत्य के प्रति आग्रह अर्थात् जो आदमी को ठीक लगे, उस पर पूरी शक्ति और निष्ठा से चलना, किसी के दबाव के आगे झुकना नहीं। असहयोग का अर्थ है-बुराई से अन्याय से, अत्याचार से सहयोग न करना। यदि कोई सताये, अन्याय करे तो किसी भी काम में उसका साथ न देना बलिदान का आशय है सच्चाई के लिए न्याय के लिए, अपने प्राण तक न्योछावर कर देना। इन तीनों हथियारों का प्रयोग गाँधी जी ने पहले दक्षिण अफ्रीका में किया, फिर भारत में।
(ब) शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त- शिक्षा से गाँधी जी का तात्पर्य बालक के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से था। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं, "शिक्षा से तात्पर्य उन समस्त शक्तियों के दोहन से है, जो शिशु एवं मानव के शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा में निहित है"। साथ ही उनके अनुसार "कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं हैं, जो लड़के-लड़कियों को आदर्श नागरिक नहीं बनाती "।
गाँधी जी के शिक्षा :-सम्बन्धी विचारों का केन्द्र-बिन्दु है-व्यवसाय और व्यवसाय से उनका आशय हस्तकला से है। वे लिखते है-"मैं बालक की शिक्षा का आरम्भ किसी उपयोगी हस्तकला के शिक्षण से करूँगा, जिससे वह आरम्भ से ही अर्जन करने में समर्थ हो सके। इससे एक तो वह शिक्षा का व्यय वहन कर सकेगा और फिर वह अपने भावी जीवन में पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर भी हो सकेगा। इस प्रकार अशिक्षा दूर करने का एक प्रकार का बीमा है।" वे विद्यालयों को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे, अर्थात् शिक्षकों को व्यवस्था विद्यालय के उत्पादन से ही हो सके और राज्य सरकार छात्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के खरीदने की व्यवस्था करे।
राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक :- गाँधी जी राष्ट्रभाषा के बिना किसी स्वतन्त्र राष्ट्र की कल्पना ही नही करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि किसी विदेशी भाषा के माध्यम से बालक की क्षमताओं का पूर्ण विकास सम्भव नहीं। इसी कारण राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।
कुटीर उद्योगों पर बल :-गाँधी जी भारत जैसे विशाल देश की समस्याओं और आवश्यकताओं को बहुत गहराई तक समझते थे। वे जानते थे कि ऐसे देश में जहाँ विशाल जनसंख्या के कारण जनशक्ति की कमी नहीं, आर्थिक आत्मनिर्भता एवं सम्पन्नता के लिए कुटीर उद्योग से ही सर्वाधिक उपयुक्त साधन हैं। गाँधीजी ने ग्रामों को आर्थिक सिद्धान्तों का केन्द्र-बिन्दु बना लिया तथा प्रत्येक गाँधीवादी के लिए प्रतिदिन चरखा चलाना और खादी पहनना अनिवार्य कर दिया।
प्रेरणादायक गुण :- गाँधी जी में ऐसे अनेक महान गुण विद्यमान थे. जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए। उनका पहला गुण था- समय का सदुपयोग वे अपना एक क्षण भर व्यर्थ न गंवाते थे, यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय भी वे कुछ-न-कुछ काम अवश्य करते रहते थे, चाहे वह आश्रम की सफाई का काम हो या चरखा चलाने का । याँ रोगियों की सेवा-शुश्रूषा का। यही कारण है कि इतनी अधिक व्यस्तता के बावजूद वे अनेक ग्रन्थ और लेखादि लिख सके।
दूसरा महत्वपूर्ण गुण था :- दूसरों को उपदेश देने से पहले किसी आदर्श को स्वयं अपने जीवन में क्रियान्वित करना । उदाहरणार्थ- वे अपना सारा काम स्वयं अपने ही हाथों करते थे, यहाँ तक कि अपना मल-मूत्र भी स्वयं साफ करते थे। इसके बाद ही वे आश्रमवासियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते थे।
मितव्ययिता उनका एक अन्य प्रेरक गुण था। वे तुच्छ-से तुच्छ वस्तु को भी व्यर्थ नहीं समझते थे अपितु उसका अधिकतम सदुपयोग करने का प्रयास करते थे। इस सम्बन्ध में आश्रमवासियों को भी उनका कठोर आदेश था।
गाँधी जी की सारगृहिणी प्रवृत्ति भी बड़ी प्रेरणाप्रद थी। वे अपने कटुतम आलोचक और विरोधी की बहुत बड़ी शान्ति से सुनते और अपने कटु विरोधी व्यक्ति की उचित बात को साररूप में ग्रहण कर लेते थे। एक बार कोई अंग्रेज युवक एक लम्बे पत्र में गाँधी जी को सैकड़ों भद्दी गालियाँ लिखकर स्वयं उनके पास पहुँचा और पत्र उन्हें दिया। पत्र पर दृष्टि डालते ही उन्होंने उसका आशय समझ लिया और उसमें लगी आलपिन को अपने पास रखकर पृष्ठों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया। युवक ने उनसे इसका कारण पूछा। गाँधी जी ने कहा कि इसमें सार वस्तु केवल इतनी ही थी, जो मैंने ले ली।
उपसंहार :- सारांश यह है कि गाँधी जी ने अपने नेतृत्व के गुणों से जनता की असीम श्रद्धा अर्जित की। उन्होंने भारत की जनता में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाया, उसे अपने अधिकार के लिए लड़ने का मनोबल दिया, देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा दी तथा स्वदेशी आन्दोलनों द्वारा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के स्वीकरण का मन्त्र दिया। उनके खादी आन्दोलन ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा दिया, राष्ट्रभाषा के महत्व एवं गौरव के प्रबल समर्थन द्वारा उन्होंने कितने ही हिन्दी भाषियों को हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी तथा राष्ट्रभाषा आन्दोलन को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। अपने अनेकानेक व्यक्तिगत गुणों के कारण अपने सम्पर्क में अपने वालों को उन्होंने अन्दर तक प्रभावित किया और दीन-दु:खियों के सदृश स्वयं भी अधनंगे रहकर तथा निर्धनता और सादगी का जीवन अपनाकर लोगों से 'महात्मा' और 'बापू' का प्रेममय सम्बोधन पाया। सचमुच वे वर्तमान भारत की एक महान् विभूति थे।
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