साहित्य और समाज पर निबंध
सम्बद्ध शीर्षक
• साहित्य समाज का दर्पण है।
• साहित्य और मानव-जीवन
• साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है।
• साहित्य और जीवन
प्रमुख विचार-बिन्दु- 1. साहित्य क्या है? 2. साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ, 3. समाज क्या है? 4. साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध : साहित्य समाज का दर्पण, 5. साहित्य की रचना प्रक्रिया, 6. साहित्य का समाज पर प्रभाव, 7. उपसंहार ।
साहित्य क्या है?- 'साहित्य' शब्द 'सहित' से बना है। 'सहित' का भाव ही साहित्य कहलाता है। (सहितस्य भावः साहित्य : ) । 'सहित' के दो अर्थ हैं- साथ एवं हितकारी (सहित हितसहित ) या कल्याणकारी। यहाँ 'साथ' से आशय शब्द और अर्थ का साथ अर्थात् सार्थ शब्दों का प्रयोग सार्थक शब्दों का प्रयोग तो ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाएँ करती हैं। तब फिर साहित्य की अपनी क्या विशेषता है? बुद्धिप्रधान या तर्कप्रधान होती हैं जबकि साहित्य हृदयप्रधान। 2. ये शाखाएँ तथ्यात्मक हैं जबकि साहित्य का विधान करना है, पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव के अन्त:करण का परिष्कार करते हुए, उसमें सद्वृत्तियों का संचार करना है। आनन्द प्रदान कराना यदि साहित्य की सफलता है, तो मानव मन का उन्नयन उसकी सार्थकता। 4. ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में कथ्य (विचार-तत्व) ही प्रधान होता है, कथन - शैली गौण । वस्तुतः भाषा-शैली वहाँ विचाराभिव्यक्ति की साधनमात्र हैं। दूसरी ओर साहित्य में कथ्य से अधिक शैली का महत्व है। उदाहरणार्थ :-
जल उठा स्नेह दीपक-सा
नवनीत हृदय था मेरा,
अब शेष धूमरेखा से,
चित्रित कर रहा अँधेरा।
कवि का कहना केवल यह है कि प्रिय के संयोगकाल में जो हृदय हर्षोल्लास से भरा रहता था, वहीं अब उसके वियोग में गहरे विषाद में डूब गया है। यह एक साधारण व्यापार है, जिसका अनुभव प्रत्येक प्रेमी-हृदय करता है, किन्तु कवि ने दीपक के रूपक द्वारा इसी साधारण सी बात को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण ढंग से कहा है, जो पाठक के हृदय को कहीं गहरा छू लेता है।
स्पष्ट है कि साहित्य में भाव और भाषा, कथ्य और कथन-शैली (अभिव्यक्ति) दोनों का समान महत्व है। यह अकेली विशेषता ही साहित्य को ज्ञान-विज्ञान की शेष शाखाओं से अलक करने के लिए पर्याप्त है।
साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ- प्रेमचन्द जी साहित्य की परिभाषा इन शब्दों में देते सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है- एक जिज्ञासा का दूसरा प्रयोजन का और तीसरा आनन्द का केवल साहित्य का विषय है। सत्य जहाँ आनन्द का स्त्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। इस बात को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर इन शब्दों में कहते हैं, "जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक द क्विन्सी (De Quincey) के अनुसार साहित्य का दृष्टिकोण उपयोगितावदी न होकर मानवतावादी है। "ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव का ज्ञानवर्द्धन करना है, उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अन्तः विकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्तप्रसादन द्वारा उसमें नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।"
समाज क्या है?- एक ऐसा मानव समुदाय, जो किसी निश्चित भू-भाग पर रहता हो, समान परम्पराओं, इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो तथा एक भाषा बोलता हो, समाज कहलाता है।
साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध: साहित्य समाज का दर्पण- समाज और साहित्य परस्पर धनिष्ठ रूप से आवद्ध हैं। साहित्य का जन्म वस्तुतः समाज से ही होता है। साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है। वह अपने समाज की परम्पराओं, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि से ही अनुप्राणित होकर साहित्य-रचना करता है और अपनी कृति में इनका चित्रण करता है। इस प्रकार साहित्यकार अपनी रचना की सामग्र किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा अपने समाज की आशाओ आकांक्षाओं, सुख-दुःखों, संघर्ष, अभावों और उपलब्धियों को वाणी देता है तथा उसका प्रमाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। उसकी समर्थ वाणी का सहारा पाकर समाज अपने स्वरूप को पहचानता है और अपने रोग का सही निदान पाकर उसके उपचार को तत्पर होता है। इसी कारण किसी साहित्य विशेष को पढ़कर उस काल के समाज को एक समग्र चित्र मानसपटल पर अंकित हो सकता है। इसी अर्थ में साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।
साहित्य की रचना प्रक्रिया समर्थ साहित्यकार अपनी अतुल्लस्पर्शिनी प्रतिभा द्वारा सबसे पहले अपने समकालीन सामाजिक जीवन का बारीकी से पर्यवेक्षण करता है, उसकी सफलताओं-असफलताओं, उपलब्धियों-अभावों, क्षमताओं- दुर्बलताओं तथा संगतियों विसंगतियो की गहराई तक थाह लेता है। इसके पश्चात् विकृतियों और समस्याओं के मूल कारणों का निदान कर अपनी रचना के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन करता है और फिर इस समस्त बिखरी हुई, परस्पर असम्बद्ध एवं अति साधारण-सी दीख पड़ने वाली सामग्री को सुसंयोजित कर उसे अपनी 'नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना के साँचे में ढालकर ऐसा कलात्मक रूप एवं सौष्ठव प्रदान करता है कि सहृदय अध्येयता रस-विभोर हो नूतन प्रेरणा से अनुप्राणित हो उठता है। कलाकार का वैशिष्ट्य इसी में है कि इसकी रचना की अनुभूति एकाकी होते हुए भी सार्वदेशिक सार्वकालिक बन जाए तथा अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए चिरन्तन मानव मूल्यों से मण्डित भी हो उसकी रचना न केवल अपने युग, अपितु अपने वाले युगों के लिए भी मानवमात्र का अक्षय निधि बन जाए। यही कारण है कि महान् साहित्यकार किसी विशेष देश, जाति, धर्म एवं भाषा-शैली के समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का अपना बन जाता है, उदाहरणार्थ- वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, होमर, शेक्सपीयर आदि किसी देश विशेष के नहीं मानवमात्र के अपने हैं, जो युगों से मानव को नवचेतना प्रदान करते आ रहे हैं और करते रहेंगे।
साहित्य का समाज पर प्रभाव- साहित्यकार अपने समकालीन समाज से ही अपनी रचना के लिए आवश्यक सामग्री का चयन करता है। अतः समाज पर साहित्य का प्रभाव भी स्वाभाविक है।
जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है कि महान साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिक या ईश्वरदत्त प्रतिभा होती है, एक ऐसी अतलस्पर्शिनी अन्तदृष्टि होती है कि वह विभिन्न दृश्यों, घटनाओं, व्यापारों या समस्याओं के मूल तथा तत्क्षण पहुँच जाता है, जब कि राजनीति, समाजशास्त्री या अर्थशास्त्री उसका कारण बाहर टटोलते रह जाते हैं। इतना ही नहीं, साहित्यकार रोग का जो निदान करता है और उपचार सुझाता है, वही वास्तविक समाधान होता है। इसी कारण प्रेमचन्द जी ने कहा है कि "साहित्य राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं हैं।" अंग्रेज कवि शैली ने कवियों को 'विश्व के अघोषित विधायक' (un-acknowledged legislators of the world) कहा है।
प्राचीन ऋषियों ने कवि को विधाता और द्रष्टा कहा है-'कविर्मनीषी धाता स्वयम्भूः साहित्यकार कितना बड़ा द्रष्टा होता है, इसका ही उदाहरण पर्याप्त होगा। आज से लगभग 70-75 वर्ष पूर्व श्री देवकीनन्दन खत्री ने अपने तिलिस्मी उपन्यास 'रोहतासमठ' में यन्त्रमानव (robot) के कार्यों का विस्मयकारी चित्रण किया था। उस समय यह सर्वथा कपोलकल्पित लगा, क्योंकि उस काल में यन्त्रमानव की बात किसी ने सोची तक न थी, किन्तु आज विज्ञान ने उस दिशा में बहुत प्रगति कर ली है, यह देख श्री खत्री की नवनवोन्मेख - शालिनी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। इसी प्रकार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व विमान के विषय में पढ़ना कल्पनामात्र लगता होगा, परन्तु आज उससे कहीं अधिक प्रगति वैमानिकी ने की है।
साहित्य द्वारा सामाजिक और राजनीतिक क्रान्तियों के उल्लेखों से तो विश्व का इतिहास भरा पड़ा है। सम्पूर्ण यूरोप को गम्भीर रूप से आलोड़ित कर डालने वाली फ्रांस की राज्य क्रान्ति (1789 ई0) रूसों की ' ला कोत्रा सोसियल' ( सामाजिक- अनुबन्ध) नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यासों ने इंगलैण्ड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों का उन्मूलन कराकर नूतन डिकेन्स के उपन्यासों ने इंग्लैण्ड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों का उन्मूलन कराकर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया।
आधुनिक युग में प्रेमचन्द के उपन्यासों में कृषकों पर जमींदारों के बर्बर अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा अनके क्रूर शोषण के चित्रों ने समाज को जमींदारी उन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया। उधर बंगाल में शरत् चन्द्र ने अपने अपन्यासों में कन्याओं के बाल-विवाह की अमानवीयता एवं विधवा-विवाह निषेधा की नृशंसता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया कि अन्ततः बाल विवह को कानून द्वारा निषिद्ध किया गया एवं विधवा-विवाह का प्रचलन हुआ।
उपसंहार- निष्कर्ष यह है कि समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। साहित्य समाज से ही उद्भूत होता है, क्योंकि साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही अंग होता है वह इसी से प्रेरणा ग्रहणकर साहित्य-रचना करता है एवं अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता हुआ समकालीन समाज का मार्गदर्शन करता है, किन्तु साहित्यकार की महत्ता इसमें है कि वह अपने युग की उपज होने पर भी उसी से बंधकर नहीं रह जाये, अपितु अपनी रचनाओं से निरंतर मानवीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना द्वारा देशकालातीत बनकर सम्पूर्ण उपलब्धि माना गया है, जिसकी समकक्षता संसार की मूल्यवान् से मूल्यवान वस्तु भी नहीं कर सकती, क्योंकि संसार का सारा ज्ञान-विज्ञान मानवता के शरीर का ही पोषण करता है। जब कि एकमात्र साहित्य ही उसकी आत्मा का पोषक है। एक अंग्रेज विद्वान ने कहा है कि "यदि कभी सम्पूर्ण अंग्रेज जाति नष्ट भी हो जाए, किन्तु केवल शेक्सपीयर बचा रहे तो अंग्रेज जाति नष्ट नहीं हुई मानी जाएगी। ऐसे युगसृष्टा और युगद्रष्टा कलाकारों के सम्मुख सम्पूर्ण मानवता कृतज्ञतापूर्वक नतमस्तक होकर उन्हे उपने हृदय-सिहांसन पर प्रतिष्ठित करती है एवं उनके यश को दिग्दिगन्तव्यापी बना देती है। अपने पार्थिव शरीर से तिरोहित हो जाने पर भी वे अपने यशरूपी शरीर से इस धारधाम पर सदा अजर-अमर बने रहते हैं
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वरारु ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥
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