मीराबाई का जीवन परिचय  | Mirabai Ka Jivan Prarichay (1498 से 1546 ई.)

मीराबाई का जीवन परिचय

जीवन परिचय (1498 से 1546 ई.)

भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई. (1555 वि.) में राजस्थान में मेड़ता के पास चौकड़ी नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम राव रत्नसिंह और माता का नाम कुसुम कुँवर था। मीराबाई जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी की प्रपौत्री और राव दूदाजी की पौत्री थीं। राव रत्नसिंह की इकलौती पुत्री होने के कारण इनका बचपन बहुत लाड़ प्यार में बीता। बचपन में ही माँ के स्वर्ग सिधार जाने के कारण ये अपने दादा राव दूदा के पास रहीं। दादा राव दूदा अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के थे, जिसका पूरा प्रभाव मीराबाई के जीवन चरित्र पर भी पड़ा।

मीराबाई बचपन से ही श्रीकृष्ण की भक्त थीं। आठ वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था। मीराबाई का विवाह 1516 ई. में चित्तौड़ के महाराजा राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ हुआ। विवाह के पश्चात् भी ये पूर्व की भाँति कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहती थीं। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् ही इनके पति की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद तो इनका सारा समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में ही बीतने लगा।

साधु-सन्तों के साथ सत्संग करने के कारण राणा मीराबाई से अत्यधिक रुष्ट हो गए, क्योंकि यह उनके राजकुल की मर्यादा के विपरीत था। इन्होंने कई बार मीराबाई को मारने का प्रयास भी किया ऐसा भी कहा जाता है कि राणा ने इन्हें विष पीने के लिए भी दिया, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण की असीम कृपा से विष का मीराबाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्त में राणा के दुर्व्यवहार से व्यथित होकर मीराबाई वृन्दावन चली गईं। सन्त कवि रैदास इनके प्रेरक एवं गुरु माने जाते हैं। सन् 1546 ई. (सम्वत् 1603 वि.) मे द्वारका स्थित कृष्णमूर्ति के समक्ष अपना स्वरचित पद 'हरि तुम हरौ जन की पीर' गाते-गाते श्रीकृष्ण की यह उपासिका पंचतत्त्व में विलीन हो गईं।

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