मेरा प्रिय कवि : तुलसीदास

मेरा प्रिय कवि : तुलसीदास

रूपरेखा- (1) प्रस्तावना, (2) तत्कालीन परिस्थितियाँ, (3) तुलसीदासकृत रचनाएँ, (4) तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में, (5) तुलसी के राम, (6) तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना, (7) तुलसी की समन्वय साधना (8) तुलसी के दार्शनिक विचार, (9) उपसंहार

(1) प्रस्तावना - यद्यपि मैंने बहुत अधिक अध्ययन नहीं किया है, तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर, तुलसी और मीरा तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद पन्त और महादेवी के काव्य का रसास्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नत-मस्तक होता रहा हूँ। उनकीभक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

(2) तत्कालीन परिस्थितियाँ- तुलसीदास का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फँस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्रायः विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई पथ-प्रदर्शक नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर धर्मान्तरण कराया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का ताण्डव हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डपली, अपना-अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसके नैतिक जीवन की नौका की पतवार सँभाल लें।

गोस्वामी तुलसीदास ने अन्धकार के गर्त में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् श्रीराम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया और उसमें अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी अमर कृति 'श्रीरामचरितमानस' द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं में समन्वय स्थापित किया। उन्होंने अपने युग को नवीन प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान समाज में व्याप्त वैमनस्य की चौड़ी खाई को पाटने का सफल प्रयत्न किया।

(3) तुलसीदासकृत रचनाएँ- तुलसीदास जी द्वारा लिखित 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं- 'श्रीरामचरितमानस', 'विनयपत्रिका', 'गीतावली', 'कवितावली', 'दोहावली' 'रामललानहछू', 'पार्वतीमंगल', 'जानकीमंगल', 'बरवै रामायण', 'वैराग्य संदीपनी', 'श्रीकृष्णगीतावली' तथा 'रामाज्ञाप्रश्नावली'। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व - साहित्य की अनुपम निधि हैं।

(4) तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में आचार्य

हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है- “लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके; क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार निष्ठा और विचार पद्धतियाँ प्रचलति हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे। 'गीता' ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।

(5) तुलसी के राम तुलसी उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं; जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था। तुलसीदास जी कहते हैं 

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥ 

तुलसी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है और वे कह उठते हैं कि -

करौं कवन बिधि बिनय बनाई।

 महाराज मोहिं दीन्हि बड़ाई ||

- बालकाण्ड 

तुलसी के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे और शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।

(6) तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना- सच्ची भक्ति वही है, जिसमें लेन-देन का भाव नहीं होता। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव भीर ॥

 (7) तुलसी की समन्वय साधना- तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाये। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय - जब ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था। तो तुलसीदास ने कहा

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय- तुलसी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं |


भगतहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा । उभय हरहिं भव-संभल खेदा॥ 

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम-नाम का मोती पिरो दिया है।

(ग) युगधर्म-समन्वय- भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और उन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया है।


कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग । 

जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग ॥


(घ) साहित्यिक समन्वय साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं, विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में भी संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

( 8 ) तुलसी के दार्शनिक विचार- तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गये। वस्तुतः तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक मानते हैं और राम को अपना स्वामी।

(9) उपसंहार - तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं। तुलसी के सम्बन्ध में हरिऔध जी के हृदय स्वतः फूट पड़ी प्रशस्ति अपनी समीचीनता में बेजोड़ है

बन रामरसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सुफला। अवगाहन मानस में करके, मन-मानस का मल सारा टला ॥ बनी पावन भाव की भूमि भली, हुआ भावुक भावुकता का भला। कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला॥


सचमुच कविता से तुलसी नहीं, तुलसी से कविता गौरवान्वित हुई। उनकी समर्थ लेखनी का सम्बल पाकर वाणी धन्य हो उठी। तुलसीदासजी के इन्हीं सभी गुणों का ध्यान आते ही मन श्रद्धा से परिपूरित हो उन्हें अपना प्रिय कवि मानने को विवश हो जाता है।

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